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अ॒ग्निना॑ र॒यिम॑श्नव॒त्पोष॑मे॒व दि॒वेदि॑वे। य॒शसं॑ वी॒रव॑त्तमम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agninā rayim aśnavat poṣam eva dive-dive | yaśasaṁ vīravattamam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निना॑। र॒यिम्। अ॒श्न॒व॒त्। पोष॑म्। ए॒व। दि॒वेऽदि॑वे। य॒शस॑म्। वी॒रव॑त्ऽतमम् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:1» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:1» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब परमेश्वर की उपासना और भौतिक अग्नि के उपकार से क्या-क्या फल प्राप्त होता है, सो अगले मन्त्र से उपदेश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - निरुक्तकार यास्कमुनि जी ने भी ईश्वर और भौतिक पक्षों को अग्नि शब्द की भिन्न-भिन्न व्याख्या करके सिद्ध किया है, सो संस्कृत में यथावत् देख लेना चाहिये, परन्तु सुगमता के लिये कुछ संक्षेप से यहाँ भी कहते हैं-यास्कमुनिजी ने स्थौलाष्ठीवि ऋषि के मत से अग्नि शब्द का अग्रणी=सब से उत्तम अर्थ किया है अर्थात् जिसका सब यज्ञों में पहिले प्रतिपादन होता है, वह सब से उत्तम ही है। इस कारण अग्नि शब्द से ईश्वर तथा दाहगुणवाला भौतिक अग्नि इन दो ही अर्थों का ग्रहण होता है। (प्रशासितारं० एतमे०) मनुजी के इन दो श्लोकों में भी परमेश्वर के अग्नि आदि नाम प्रसिद्ध हैं। (ईळे०) इस ऋग्वेद के प्रमाण से भी उस अनन्त विद्यावाले और चेतनस्वरूप आदि गुणों से युक्त परमेश्वर का ग्रहण होता है। अब भौतिक अर्थ के ग्रहण में प्रमाण दिखलाते हैं-(यदश्वं०) इत्यादि शतपथ ब्राह्मण के प्रमाणों से अग्नि शब्द करके भौतिक अग्नि का ग्रहण होता है। यह अग्नि बैल के समान सब देशदेशान्तरों में पहुँचानेवाला होने के कारण वृष और अश्व भी कहाता है, क्योंकि वह कलायन्त्रों के द्वारा प्रेरित होकर देवों=शिल्पविद्या के जाननेवाले विद्वान् लोगों के विमान आदि यानों को वेग से दूर-दूर देशों में पहुँचाता है। (तूर्णि०) इस प्रमाण से भी भौतिक अग्नि का ग्रहण है, क्योंकि वह उक्त शीघ्रता आदि हेतुओं से हव्यवाट् और तूर्णि भी कहाता है। (अग्निर्वै यो०) इत्यादिक और भी अनेक प्रमाणों से अश्व नाम करके भौतिक अग्नि का ग्रहण किया गया है। (वृषो०) जब कि इस भौतिक अग्नि को शिल्पविद्यावाले विद्वान् लोग यन्त्रकलाओं से सवारियों में प्रदीप्त करके युक्त करते हैं, तब (देववाहनः) उन सवारियों में बैठे हुए विद्वान् लोगों को देशान्तर में बैलों वा घोड़ों के समान शीघ्र पहुँचानेवाला होता है। उस वेगादि गुणवाले अश्वरूप अग्नि के गुणों को (हविष्मन्तः) हवियुक्त मनुष्य कार्यसिद्धि के लिये (ईळते) खोजते हैं। इस प्रमाण से भी भौतिक अग्नि का ग्रहण है ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार से दो अर्थों का ग्रहण है। ईश्वर की आज्ञा में रहने तथा शिल्पविद्यासम्बन्धी कार्य्यों की सिद्धि के लिये भौतिक अग्नि को सिद्ध करनेवाले मनुष्यों को अक्षय अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं होता, ऐसा धन प्राप्त होता है, तथा मनुष्य लोग जिस धन से कीर्त्ति की वृद्धि और जिस धन को पाके वीर पुरुषों से युक्त होकर नाना सुखों से युक्त होते हैं, सब को उचित है कि उस धन को अवश्य प्राप्त करें ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

तेनोपासितेनोपकृतेन च किं किं प्राप्तं भवतीत्युपदिश्यते।

अन्वय:

मनुष्यः अग्निनैव दिवेदिवे पोषं यशसं वीरवत्तमं रयिमश्नवत् प्राप्नोति ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निना) परमेश्वरेण संसेवितेन भौतिकेन संयोजितेन वा (रयिम्) विद्यासुवर्णाद्युत्तमधनम्। रयिरिति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (अश्नवत्) प्राप्नोति। लेट्-प्रयोगः, व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (पोषम्) आत्मशरीरयोः पुष्ट्या सुखप्रदम् (एव) निश्चयार्थे (दिवेदिवे) प्रतिदिनम्। दिवेदिवे इत्यहर्नामसु पठितम्। (निघं०१.९) (यशसम्) सर्वोत्तमकीर्त्तिवर्धकम्। (वीरवत्तमम्) वीरा विद्वांसः शूराश्च विद्यन्ते यस्मिन् तदतिशयितं वीरवत्तमम् ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारेणोभयार्थस्य ग्रहणम्। ईश्वराज्ञायां वर्त्तमानेन शिल्पविद्यादिकार्य्यसिध्यर्थमग्निं साधितवता मनुष्येणाक्षयं धनं प्राप्यते, येन नित्यं कीर्त्तिर्वृद्धिर्वीरपुरुषाश्च भवन्ति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार असून दोन अर्थांचे ग्रहण केलेले आहे. ईश्वराच्या आज्ञेत राहण्याने व शिल्पविद्यासंबंधी कार्य सिद्ध होण्यासाठी भौतिक अग्नीचे संयोजन करण्याने माणसांना अक्षय धन प्राप्त होते. त्याची नित्य कीर्ती वाढते व ते वीर पुरुष बनतात. ॥ ३ ॥